“हर आरंभ में एक अंत छिपा होता है, और हर अंत एक नए आरंभ की भूमिका रचता है – यही जीवन है।”
मनुष्य का जीवन एक अनसुलझी पहेली की तरह होता है, जिसमें हर दिन एक नई चुनौती, एक नया अनुभव और एक नया सबक होता है। लेकिन जब हम इस जीवन यात्रा को समझने की कोशिश करते हैं, तो एक ग्रंथ बार-बार हमारे सामने आता है – भगवद गीता। यह ग्रंथ न केवल धर्म और कर्म का मार्ग दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि “Bhagavad Gita Teachings आरंभ और अंत: भगवद गीता क्या सिखाती है”।
Table of Contents
Bhagavad Gita Teachings: आरंभ क्या है?

आरंभ का अर्थ होता है किसी भी चीज़ की शुरुआत। यह वो क्षण होता है जब कोई विचार जन्म लेता है, कोई क्रिया शुरू होती है या कोई नई यात्रा प्रारंभ होती है। जीवन में हर दिन, हर क्षण, हर निर्णय का एक आरंभ होता है। यह वह बिंदु होता है जहाँ हम कुछ नया करने का साहस जुटाते हैं, चाहे वो एक रिश्ता हो, कोई काम हो या कोई विचार।
उदाहरण के लिए:
- जब कोई बच्चा जन्म लेता है – यह जीवन का आरंभ है।
- जब कोई विद्यार्थी पहली बार विद्यालय जाता है – यह शिक्षा का आरंभ है।
- जब हम कोई नया कार्य शुरू करते हैं – यह हमारी मेहनत का आरंभ है।
Bhagavad Gita Teachings भगवद गीता क्या सिखाती है – इसका एक पहला उत्तर यही है कि आरंभ की पवित्रता को समझो। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हमें अपने कर्तव्यों की शुरुआत निष्ठा और साहस के साथ करनी चाहिए, बिना किसी फल की चिंता के।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(अध्याय 2, श्लोक 47)
अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।
इसका अर्थ है: आरंभ को पवित्र और उद्देश्यपूर्ण बनाना ही सच्चा कर्मयोग है।
Bhagavad Gita Teachings: अंत क्या है?

अंत का अर्थ है किसी चीज़ की समाप्ति। जब कोई कार्य पूरा हो जाता है, कोई संबंध समाप्त होता है या जीवन की यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँचती है, तो उसे अंत कहा जाता है। अंत अनिवार्य है, क्योंकि हर आरंभ का एक निश्चित अंत होता है – यह प्रकृति का नियम है।
उदाहरण के लिए:
- जब सूर्य अस्त होता है – वह दिन का अंत है।
- जब कोई परियोजना पूर्ण होती है – वह कार्य का अंत है।
- जब कोई व्यक्ति शरीर छोड़ता है – वह जीवन का भौतिक अंत है।
लेकिन Bhagavad Gita Teachings भगवद गीता क्या सिखाती है? गीता सिखाती है कि अंत कोई पूर्ण विराम नहीं, बल्कि एक नया आरंभ होता है। आत्मा नष्ट नहीं होती – वह बस एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं:
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।”
(अध्याय 2, श्लोक 22)
अर्थ: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।
इसका अर्थ है: अंत वास्तव में एक परिवर्तन है, जो आत्मा को एक नई दिशा में अग्रसर करता है।
आरंभ में उम्मीदें और अंत में हकीकत:
जब हम किसी कार्य की शुरुआत करते हैं, तो हमारी उम्मीदें बहुत ऊँची होती हैं। हम परिणाम की कल्पना में खो जाते हैं। लेकिन जब अंत आता है, तो हकीकत से सामना होता है – और वही हमें गहराई से कुछ सिखाती है।
उम्मीदों और हकीकत की यह टकराहट भी गीता का एक महत्वपूर्ण दर्शन है।
इस विषय पर हमने एक विस्तृत लेख भी लिखा है जिसे आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते हैं। यह लेख बताता है कि कैसे गीता हमें सिखाती है कि उम्मीदें कैसे पैदा होती हैं और हकीकत हमें क्या सिखाती है।
आरंभ और अंत के बीच का अंतर (Difference Between Beginning and End):
क्रमांक | विषय | आरंभ (Beginning) | अंत (End) |
---|---|---|---|
1. | अर्थ | किसी कार्य, विचार या जीवन की शुरुआत | किसी प्रक्रिया, कार्य या जीवन का समापन |
2. | भावना | आशा, उत्साह, योजना, प्रेरणा | संतोष, दुख, राहत, अनुभव, या पछतावा |
3. | उद्देश्य | नई शुरुआत करना और कुछ नया रचना | कार्य को पूर्ण करना या मूल्यांकन करना |
4. | मानसिक स्थिति | प्रेरणा के साथ लेकिन असमंजस संभव | समझदारी व अनुभव से युक्त स्थिति |
5. | समय की दृष्टि से | भविष्य की ओर केंद्रित | अतीत की ओर केंद्रित |
6. | गीता का सन्देश | कर्मयोग द्वारा कार्य का आरंभ करें | फल की आसक्ति छोड़कर शांत चित्त से अंत स्वीकार करें |
7. | उदाहरण | जन्म, नया कार्य, पहली मुलाकात | मृत्यु, परियोजना का समापन, विदाई |
8. | प्रभाव | संभावनाओं का द्वार खोलता है | अनुभव और सीख की विरासत छोड़ता है |
जीवन में आरंभ और अंत का महत्व: Bhagavad Gita Teachings

- आरंभ हमें उत्साह देता है, उद्देश्य देता है, और हमें नये अनुभवों की ओर ले जाता है।
- अंत हमें सिखाता है कि हम क्या बन चुके हैं, क्या खोया, क्या पाया, और आगे कैसे बढ़ना है।
What Bhagavad Gita Teachings भगवद गीता क्या सिखाती है – इसका एक गूढ़ अर्थ यह है कि हम न तो आरंभ से अत्यधिक जुड़ें, न अंत से भय खाएं। जीवन एक चक्र है, जिसमें आरंभ और अंत निरंतर चलते रहते हैं।
“जो इस चक्र को समझ लेता है, वही मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।”
1. जीवन की अस्थिरता और आरंभ का महत्व
जीवन का हर क्षण एक नया आरंभ होता है। जैसे ही सूरज उगता है, दिन का आरंभ होता है। वैसे ही जब कोई बच्चा जन्म लेता है, वह एक नई यात्रा का प्रतीक होता है। भगवद गीता क्या सिखाती है – इसका पहला उत्तर यही है कि हर आरंभ एक जिम्मेदारी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(अध्याय 2, श्लोक 47)
इस श्लोक से गीता सिखाती है कि आरंभ करते समय हमें अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना चाहिए, न कि परिणामों पर। जब हम कर्म में लीन होते हैं, तो हर आरंभ सार्थक होता है।
2. अंत का सत्य और मोह का त्याग
हम सभी जानते हैं कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। यह जीवन का अटल सत्य है, जिसे स्वीकार करना कठिन होता है। लेकिन भगवद गीता क्या सिखाती है, इसका दूसरा पहलू यही है – अंत को स्वीकार करना। गीता कहती है:
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ध्रुवं जन्म मृतस्य च।”
(अध्याय 2, श्लोक 27)
इसका अर्थ है कि जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के बाद फिर जन्म भी निश्चित है। यह चक्र निरंतर चलता रहता है। इसलिए गीता मोह और शोक से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है।
3. आत्मा न मरती है, न जन्म लेती है
जब हम “अंत” की बात करते हैं, तो डर का एक भाव उत्पन्न होता है। लेकिन भगवद गीता क्या सिखाती है, यह जानना जरूरी है – आत्मा कभी मरती नहीं। श्रीकृष्ण कहते हैं:
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्…”
(अध्याय 2, श्लोक 20)
इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है, वह अजर और अमर है। यही कारण है कि गीता में मृत्यु को एक शरीर परिवर्तन की प्रक्रिया माना गया है – जैसे पुराने कपड़ों को त्यागकर नए कपड़े धारण करना।
4. भय और संदेह से मुक्ति
आरंभ के समय व्यक्ति डरता है – असफलता से, अस्वीकृति से। अंत के समय वह डरता है – खो देने से, मृत्यु से। लेकिन भगवद गीता क्या सिखाती है – यह हमें डर और संदेह से ऊपर उठना सिखाती है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“निर्वैरं समबुद्धिं ब्रह्मभूतं प्रपद्यते।”
(अध्याय 5, श्लोक 29)
जो व्यक्ति ब्रह्म में स्थित हो जाता है, वह न भयभीत होता है, न क्रोधित। यह शांति उसे अंत के भय से मुक्त करती है।
5. निष्काम कर्म का मार्ग
हर आरंभ किसी उद्देश्य से होता है, लेकिन यदि उद्देश्य में केवल फल की कामना हो, तो अंत दुखद हो सकता है। भगवद गीता क्या सिखाती है, इसका एक प्रमुख संदेश है – निष्काम कर्म।
“योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।”
(अध्याय 2, श्लोक 48)
इसका अर्थ है कि योग में स्थित होकर कर्म करो, फल की आसक्ति को त्याग दो। यही कर्म योग है – जो हर आरंभ को सफल बनाता है और हर अंत को शांतिपूर्ण।
6. समय का चक्र और स्वीकार्यता
जीवन में हर चीज समय के अधीन है – जन्म, विकास, पतन और मृत्यु। भगवद गीता क्या सिखाती है, इसका एक मुख्य भाग है समय की शक्ति को पहचानना। श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं:
“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।”
(अध्याय 11, श्लोक 32)
अर्थात मैं काल हूं – सबका विनाश करने वाला। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि समय का चक्र रुकता नहीं, इसलिए जीवन में परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार करना चाहिए।
7. आत्मज्ञान से मुक्ति
आत्मज्ञान ही वह कुंजी है जो आरंभ और अंत दोनों को अर्थ देती है। जब हम यह समझते हैं कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं, तब ही जीवन के दोनों छोरों को समझ सकते हैं। भगवद गीता क्या सिखाती है, इसका अंतिम उत्तर यही है – आत्मा को जानो, क्योंकि वही शाश्वत है।
“विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।”
(अध्याय 5, श्लोक 18)
ज्ञानी व्यक्ति सबको एक ही दृष्टि से देखता है – चाहे वह ब्राह्मण हो या हाथी। यह दृष्टिकोण हमें जीवन के आरंभ और अंत को सम भाव से देखने की शक्ति देता है।
कहानी: कुरुक्षेत्र का मौन अंत और नया आरंभ
कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो चुका था। चारों ओर राख और शवों का ढेर था। वीरों की गाथाएं अब शांति के सन्नाटे में खो चुकी थीं। पांडवों की विजय हो चुकी थी, लेकिन अर्जुन की आँखों में संतोष नहीं था।
वह युद्धभूमि में खड़ा होकर सोच रहा था,
“क्या यही अंत था? क्या इसी के लिए मैंने युद्ध लड़ा?”
उसी क्षण श्रीकृष्ण उसके पास आए।
उन्होंने मुस्कराते हुए अर्जुन के कंधे पर हाथ रखा और बोले:
“अर्जुन, यह अंत नहीं है, यह तो एक नया आरंभ है।”
अर्जुन ने चौंककर पूछा,
“परंतु मैंने अपनों को खो दिया, राजसिंहासन प्राप्त हुआ, फिर भी शांति नहीं… यह कैसा आरंभ?”
श्रीकृष्ण ने गीता की वही सीख दोहराई जो युद्ध के आरंभ में दी थी:
“तू अपने कर्म पर केंद्रित रह, फल की चिंता न कर। जीवन का आरंभ केवल कर्म से होता है और अंत आत्म-ज्ञान से।”
श्रीकृष्ण अर्जुन को एक शांत सरोवर के किनारे ले गए और बोले:
“देख अर्जुन, यह जल बहता रहता है – उसका कोई स्थायी आरंभ या अंत नहीं होता। लेकिन फिर भी यह हर क्षण नया रूप लेता है। ठीक वैसे ही, जीवन भी बदलता रहता है।”
“जब तूने गांडीव उठाया था, वह एक आरंभ था – साहस का, कर्तव्य का। अब जब युद्ध समाप्त हुआ है, यह एक अंत है – मोह का, अहंकार का, भ्रम का।”
“अब तेरा असली जीवन शुरू होता है – सेवा, न्याय और त्याग का।”
अर्जुन की आँखों में अब केवल आँसू नहीं थे, एक नई प्रेरणा की ज्वाला थी।
सीख Bhagavad Gita Teachings
“हर अंत एक नया आरंभ है, यदि दृष्टि गीता की हो तो।”
“भगवद गीता क्या सिखाती है?” – यह केवल युद्ध की नहीं, बल्कि आत्मा की शांति की गाथा है। श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में जीत और हार से अधिक महत्वपूर्ण है धर्म और विवेक से जीना।
“जो व्यक्ति अंत में मोह को छोड़ दे और आरंभ में केवल कर्तव्य देखे – वही मुक्त होता है।”
जब अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा था, उसका अंतर्मन संघर्षों से घिरा था – मोह, भय, और भ्रम से।
लेकिन श्रीकृष्ण ने उसे गीता का वह ज्ञान दिया जिसने उसे संघर्ष में भी सकारात्मकता से काम लेने की शक्ति दी।
यदि आप जीवन के संघर्षों में सकारात्मक रहने की प्रेरणा चाहते हैं, तो हमारा यह ब्लॉग जरूर पढ़ें –
संघर्ष और सकारात्मकता: गीता की दृष्टि से जीवन का रास्ता
निष्कर्ष Bhagavad Gita Teachings: आरंभ और अंत के बीच का संतुलन
“जीवन न आरंभ में बसता है, न अंत में – वह उन दोनों के बीच की यात्रा में है।”
What Bhagavad Gita Teachings भगवद गीता क्या सिखाती है – यह प्रश्न जितना गहरा है, उत्तर उतना ही सरल। वह सिखाती है कि जीवन का उद्देश्य केवल प्राप्ति नहीं, बल्कि सच्चे ज्ञान, कर्म, और आत्मा की पहचान में है। हर आरंभ एक अवसर है, और हर अंत एक मार्गदर्शन – इस यात्रा को समझना ही गीता का संदेश है।
FAQs on Bhagavad Gita Teachings – आरंभ और अंत से जुड़े सामान्य प्रश्न
आरंभ का क्या अर्थ है भगवद गीता के अनुसार?
भगवद गीता के अनुसार, “आरंभ” केवल किसी कार्य की शुरुआत नहीं है, बल्कि वह मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति संकल्प करता है और कर्म के मार्ग पर आगे बढ़ता है। यह आत्मविश्वास, श्रद्धा और कर्मयोग का प्रतीक होता है।
अंत का क्या तात्पर्य है गीता में?
“अंत” का अर्थ केवल समाप्ति नहीं है, बल्कि परिणाम, आत्मबोध और मोक्ष की स्थिति है। गीता सिखाती है कि हर अंत एक नए आरंभ का द्वार होता है – यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
भगवद गीता हमें आरंभ और अंत को लेकर क्या दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देती है?
गीता कहती है कि हमें न आरंभ को लेकर मोह करना चाहिए और न अंत को लेकर भय। कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो – यही सच्चा योग है। श्रीकृष्ण कहते हैं –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
क्या हर अंत दुखद होता है?
नहीं, गीता के अनुसार अंत कोई “दुखद” या “खुशहाल” घटना नहीं होता, बल्कि आत्मिक यात्रा का एक चरण होता है। यदि अंत ज्ञान, शांति या मोक्ष की ओर ले जाए तो वह पवित्र और सकारात्मक होता है।
क्या जीवन में बार-बार नए आरंभ संभव हैं?
हाँ, गीता के अनुसार जीवन में हर पल एक नया आरंभ हो सकता है। हर गलती के बाद माफ़ी से, हर असफलता के बाद सीख से – हम पुनः आरंभ कर सकते हैं। आत्मबोध ही नया आरंभ है।
क्या आरंभ से ही अंत तय होता है?
नहीं, गीता के अनुसार हमारा कर्म और दृष्टिकोण अंत को गढ़ते हैं। अगर आरंभ में लक्ष्य स्पष्ट हो और मार्ग धर्ममय हो, तो अंत निश्चित ही सार्थक होता है। लेकिन बदलाव का अधिकार मनुष्य के हाथ में है।
क्या मृत्यु अंत है?
भगवद गीता कहती है – “न जायते म्रियते वा कदाचिन्…” आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। अतः मृत्यु भी एक नया आरंभ है।
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